डेरा सन्त बाबा हिम्मत सिंह साहिब दरबार
डेरा सन्त बाबा हिम्मत सिंह साहिब दरबार
अजमेर, 19 अक्टूबर 2022, ( जी. एस. लबाना)। " इच्छा पूरकु सरब सुखदाता हरि जा कै वसि है कामधेना । सो ऐसा हरि धयाईये मेरे जीअड़े ता सरब सुख पवहि मेरे मना" श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी के अंग 669 के महावाक के साथ आज सन्त बाबा बिजय सिंह साहिब एवं सन्त बाबा ज्ञान सिंह साहिब की सालाना वर्सी अजमेर में सम्पन्न हुई, महावाक डेरा सन्त बाबा हिम्मत सिंह साहिब दरबार के वर्तमान गद्दीनशीन महन्त सन्त बाबा सुखदेव सिंह जी अपनी मधुर वाणी द्वारा उच्चारण कर संगत को स्वर्ण कराया।
इससे पहले 17 अक्टूबर 2022 को आरम्भ हुए श्री अखण्ड पाठ साहिब का आज 19 अक्टूबर 2022 को भोग साहिब पड़ा, उपरान्त महन्त सन्त बाबा सुखदेव सिंह जी ने "सबु को तेरे वसि अगम अगोचरा । तू भगता के वसि भगता ताणु तेरा।।" गुरुबाणी =(श्री गुरु ग्रन्थ साहिब अंग 962) का शब्द कीर्तन गायन करते हुए सन्तों की महिमा को समझाते हुए कहा कि जैसे इन्सान का शरीर बीमार हो जाता है तो उसे अच्छे डाक्टर की जरूरत पड़ती है डाक्टर ही दवाई देता तब शरीर ठीक होता है, इसी तरह किसी मुक़दमे में एक अच्छे वकील की जरूरत पड़ती है वकील ही जज साहब को अपनी बात समझा पाता है डाक्टर और वकील बीच के माध्यम हैं जो हमे राहत देते हैं इसी तरह सन्त जन परमेश्वर के नजदीक रहते है और वे हमें परमात्मा से मिलाते है। उक्त गुरुबाणी शब्द की व्याख्या करते हुए महन्त जी ने कहा परमात्मा चालाकी करने से वस में नहीं आता वो तो सब के दिल की बात जानता है। परमात्मा को प्यार और श्रध्दा से प्राप्त किया जा सकता है, महन्त जी ने संगत को और अधिक सरल रुप में समझाते हुए धना भगत की साखी का जिकर करते हुए कहा कि एक ब्राह्मण ने धना भगत को एक कपडे में पत्थर लपेट कर दे दिया और बदले में एक अच्छी खासी दूध देने वाली गाय ले ली, धना भगत वह पत्थर ब्रह्मण के कहे अनुसार भगवान समझ कर घर ले लाया । और ब्राहमण के कहे अनुसार ही उसे स्नान आदि कराके अपने घर में बिराजमान करके कई प्रकार के पदार्थ बनाकर थाली में परोस कर भगवान के सामने रख दी और कहने लगा भगवान आप भोजन कर लो फिर मै करूगा। इक दिन बीत गया , दूसरा तीसरा, चौथा ऐसे करते 7 दिन बीत गये भगवान ने भोजन नहीं खाया, धना भी जिद्दी थे कहने लगा भगवान आप जिद्दी है तो मैं भी जिद्दी हूं, जब तक आप नहीं खाएंगे मै भी नही खाऊंगा । वह भी हर समय नया भोजन बनाता और समय बीतने के बाद वह भोजन गायों को खिला देता । फिर नया भोजन बनाता । धना ने भी भगवान को कह दिया जब तक आप नही खाएंगे मै भी नही खाऊगा। आखिर भगवान को आना पढा और भोजन खाने के बाद धना को भी भोजन खिलाया। अब भगवान हर खाने के समय आ जाते खाना खाने के बाद धना को भी भोजन खिलाते।
अखिर एक दिन भगवान ने कहा मै रोज रोज आपका खाना खाता हूं कोई काम हो तो बताओ मै कर देता हू। धना के पास एक खेती बाडी की जमीन थी पर वह बंजर थी, कई बार मेहनत करने के बाद उस पर फसल नही होती थी। धना ने भगवान को उस पर खेती करने को कह दिया, भगवान ने उस पर अच्छी हरी भरी फसल पैदा कर दी ।
धना अब सिर्फ वाहेगुरु वाहेगुरु का स्मरण करता और भगवान उसके सारे काम करता ।
दूसरी तरफ उस ब्राहमण की गाय जो 7-8 किलो दूध देती थी धीरे धीरे उसने दूध देना बन्द कर दिया, ब्राहमण ने सोचा धना तो समजता नही है उसे यह गाय वापस करके दूसरी गाय ले आता हूं । यह सोचकर ब्राह्मण धना के घर आया देखा तो धना चार पाई पर बैठ कर हाथ में माला लिये नाम सिमरन वाहेगुरु वाहेगुरु कर रहा है और घर में पहले से ज्यादा खुशहाली है, लोग आदर सत्कार भी कर रहे है ।
यह देख कर ब्राह्मण सोचने लगा मैने तो इससे ठगी की थी पर ये ऐसा धनवान कैसे हो गया । इतने में धना ने जब देखा कि मेरे घर पर वही ब्राह्मण आया है जिसने मुझे भगवान दिया था। वह जल्दी उठकर जाकर ब्राह्मण के पैरों में गिर पढा और बहुत बहुत धन्यवाद करने लगा।
ब्राह्मण ने पूछा क्या हुआ। धना ने कहा आपने जो भगवान दिया था यह सब उसी की बदोलत है, मेरे सभी काम वही कर रहा है ।
ब्राह्मण ने कहा कहां हैं भगवान ? धना ने कहा यह देखो मेरे पास खडे है। ब्राह्मण ने कहा है मुझे तो नजर नही आ रहे हैं। धना ने भगवान को कहा भगवान ब्राह्मण को दर्शन दो । भगवान ने कहा इनकी इतनी श्रध्दा नहीं कि ये दर्शन कर सके। धना ने कहा नही मेरी खातिर इन्हे दर्शन दो ये कैसे भी है पर मेरे लिये मेरे गुरू हैं इन्ही की कृपा से मुझे आप मिले हैं। भगवान को धना की बात मानिनी पढ़ी और ब्राह्मण को दर्शन दिये।
महन्त जी के कहने का तात्पर्य था कि सन्त महापुरुषों की कृपा से ही सेवा, सन्तोष, स्मरण और विश्वास का मार्ग मिलता है और उसी से ही भगवान की प्रति, भगवान की कृपा मिलती है। गुरुबाणी शब्द का अर्थ समझाते हुए कहा कि सब कोई, हर जीव भगवान के वस में है पर भगवान भगतों के वस में, इसके साथ ही महन्त जी ने "माथे तिलकु हथि माला बानां । लोगन रामु खिलोऊना जानां" गुरुबाणी =(श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी अंग : 1158) शब्द का गायन करने के बाद सिन्धी भजन "पेर भरे जेको इन्दो, दरबारि वारो भलो ई कन्दो, गुरु नानक साहिब भलो ई कन्दो, बाबा बिजय सिंह साहिब भलो ई कन्दो" का गायन कर संगत को निहाल किया।
उपरान्त आन्नद साहिब का पाठ व आरती कर समूह साध संगत की अरदास कर महावाक लिया और अटूट लंगर प्रसाद वितरित किया गया।
महन्त जी के शब्द कीर्तन से पहले दरबार के सेवक गुरमत विद्यालय के छात्र ने " मै अंधुले की टेक तेरा नाम खुन्दकारा मै गरीब मै मसकीन तेरा नाम है अधारा" =(अंग 272) गुरुबाणी शब्द कीर्तन गायन कर संगत को निहाल किया।
ज्ञात रहे कि महन्त सन्त बाबा बिजय सिंह साहिब व सन्त बाबा ज्ञान सिंह साहिब जी अजमेर में ब्रह्म लीना हुए थे, इसी कारण विशेषकर सन्तों की याद वर्सी झूलेलाल कालोनी, मलूसर रोड अजमेर स्थित डेरा संत बाबा हिम्मत सिंह साहिब दरबार हर वर्ष मनाई जाती है।
सन्त महापुरुषों के अनैक कौतक भी हैं, जैसे कहते कि लकड़ बाग नमक एक जानवर ने लतीपुर (मेरठ) में आन्तक मचा रखा था, जब बाबा बिजय सिंह साहिब जी वहां गये तब बाबा बिजय सिंह साहिब ने संगत के कहने पर पानी पड़कर चारों दिशाओं में छिड़क दिया । कहते है उसके बाद उस गांव कभी वह लकड़ बाग नहीं आया। ऐसे कौतकों का जिकर डेरा सन्त बाबा हिम्मत सिंह साहिब दरबार के महन्तों-सन्त महापुरुषों के हैं समयानुसार आगे कभी इनका जिकर करेगें जिससे संगत को डेरा सन्त बाबा हिम्मत सिंह साहिब दरबार की जानकारी हो सकेगी।
ज्ञात रहे कि डेरा सन्त बाबा हिम्मत सिंह साहिब दरबार की गद्दी सिन्ध पाकिस्तान के टन्डोजाम से चलती आ रही है। भारत पाक बटवारे के समय तत्कालीन गद्दीनशीन महन्त ने सबसे पहले अजमेर में डेरा (दरबार) में स्थापित किया उसके बाद दिल्ली मुम्बई आदि में भी सन्त बाबा हिम्मत सिंह साहिब की दरबारें (डेरे) शोभायमान हैं। वर्तमान गद्दीनशीन महन्त सन्त बाबा सुखदेव सिंह जी की अगुवाई में दिल्ली डेरे में महन्त सन्त बाबा गुरमुख सिंह साहिब गुरमत विद्यालय चलता है जिसमें विभिन्न प्रान्तों के स्वजातीय लबाना सिख समाज के बचें गुरमत विद्या, गुरुबाणी शब्द कीर्तन, संगीत आदि की शिक्षा प्राप्त करते हैं, उनके रहने कपडे आदि की व्यवस्था साध संगत के सहयोग से डेरे से ही की जाती है। इस सेवा के लियेमहन्त सन्त बाबा सुखदेव सिंह जी साहिब से 9818126912 पर सम्पर्क किया जा सकता है।
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सम्पर्क:  सम्पादक: 
जी. एस. लबाना  
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